परम्परा का मूल्यांकन
प्रश्न 1. परंपरा का ज्ञान किनके लिए सबसे ज्यादा आवश्यक है और क्यों ?
उत्तर- जो लोग साहित्य में युग परिवर्तन करना चाहते हैं , जो लकीर के फकीर नहीं हैं , जो रूढ़ियां तोड़कर क्रांतिकारी साहित्य रचना चाहते हैं , उनके लिए साहित्य की परम्परा का ज्ञान सबसे आवश्यक है । क्योंकि साहित्य की परम्परा के ज्ञान से ही प्रगतिशील आलोचना का विकास होता है । प्रगतिशील आलोचना के ज्ञान से साहित्य की धारा मोड़ी जा सकती है और नए प्रगतिशील साहित्य का निर्माण किया जा सकता है ।
प्रश्न 2. परंपरा के मूल्यांकन में साहित्य के वर्गीय आधार का विवेक लेखक क्यों महत्त्वपूर्ण मानता ?
उत्तर- साहित्य के परंपरा का मूल्यांकन करते हुए सबसे पहले हम उस साहित्य का मूल्य निर्धारित करते हैं जो शोषक वर्गों के विरुद्ध श्रमिक जनता के हितों को प्रतिबिम्बित करता है । हम उस साहित्य पर ध्यान देते हैं जिसकी रचना का आधार शोषित जनता का श्रम है । तथा उसके उपयोगिता को देखने की कोशिश करते हैं । इसके आलावा जो साहित्य सीधे सम्पत्तिशाली वर्गों की देख – रेख में रचा गया है उनके वर्ग हितों को प्रतिबिम्बित करता है , जो परखकर देखना चाहिए कि यह अभ्युदयशील वर्ग का साहित्य है या ह्रासमान वर्ग का । यह स्मरण रखना चाहिए कि पुराने समाज में वर्गों की रूप रेखा लेखक के विवेक पर निर्भर करता है संभावना बनी रहती है कि सम्पत्तिशाली और सम्पत्तिहीन वर्ग एक दूसरे के सामने पूरी तरह विरोधी बनकर खड़े हो ।
प्रश्न 3. साहित्य का कौन – सा पक्ष अपेक्षाकृत स्थायी होता है ? इस संबंध में की राम स्पष्ट करें ।
उत्तर- साहित्य मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन से संबद्ध है । साहित्य में उसकी बहुत सी आदिए भावनाएँ प्रतिफलित होती है जो उसे प्राणिमात्र से जोड़ती है । इस बात को बार – बार कहने में कोई हानि नहीं है कि साहित्य विचार धारा मात्र नहीं है । मनुष्य प्राणी के रूप में भी अपना जीवन बिताता है । उसमें मनुष्य का इन्द्रिय बोध , उसकी भावनाएँ भी व्यजित होती है । अतः साहित्य का यह पक्ष अपेक्षाकृत स्थायी होता है ।
प्रश्न 4. साहित्य में विकास प्रक्रिया उसी तरह सम्पन्न नहीं होती , जैसे समाज में लेखक का आशय स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर- सामाजिक विकास क्रम में सामन्ती सभ्यता की अपेक्षा पूँजीवादी सभ्यता को अधिक प्रगतिशील कहा जा सकता है और पूँजीवादी सभ्यता के मुकाबले समाजवादी सभ्यता को पुराने घरखे और करने के मुकाबले मशीनों के व्यवहार से श्रम की उत्पादकता बहुत बढ़ गई है । पर यह आवश्यक नहीं है कि सामन्ती समाज में कवि की अपेक्षा पूँजीवादी समाज का कवि श्रेष्ठ हो । जो महान साहित्यकार हैं उसकी कला की आवृत्ति नहीं हो सकती । अमरीका ने ऐलबम बनाया , रूस ने भी बनाया , पर शेक्सपियर के नाटकों जैसी चीज का उत्पादन दुबारा इंगलैण्ड में भी नहीं हुआ । इसलिए साहित्य में विकास प्रक्रिया उसी तरह सम्पन्न नहीं होती जैसे समाज में |
प्रश्न 5. लेखक मानव चेतना को आर्थिक संबंधों से प्रभावित मानते हुए भी उसकी सापेक्ष स्वाधीनता किन दृष्टांतों द्वारा प्रमाणित करता है |
उत्तर- द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद मनुष्य की चेतना को आर्थिक सम्बन्धों से प्रभावित मानते हुए क उसकी सापेक्ष स्वाधीनता स्वीकार करता है । आर्थिक सम्बन्धों से प्रभावित होना एक बात है , उसके द्वारा चेतना का निर्धारित होना और बात है । भौतिकवाद का अर्थ भाग्यवाद नहीं है । सब कुछ परिस्थितियों द्वारा निर्धारित नहीं हो जाता । यदि मनुष्य परिस्थितियों का नियामक नहीं तो परिस्थितियाँ भी मनुष्य की नियामक नहीं है । दोनों सम्बन्ध द्वन्द्वात्मक है । यही कारण है कि साहित्य सापेक्ष रूप में स्वाधीन होता है ।
प्रश्न 6. साहित्य के निर्माण में प्रतिभा की भूमिका स्वीकार करते हुए लेखक किन खतरों से आगाह करता है ?
उत्तर- साहित्य के निर्माण में प्रतिभा की भूमिका स्वीकार करते हुए लेखक ने कहा है कि इसका यह अर्थ नहीं कि ये मनुष्य जो करते हैं , वह सब अच्छा ही अच्छा होता है । उनके श्रेष्ठ कृतित्व में दोष नहीं होते । कला का पूर्णतः निर्दोष होना भी एक दोष है । ऐसी कला निर्जीव होता है । इसलिए , प्रतिभाशाली मनुष्यों की अद्वितीय उपलब्धियों के बाद कुछ नया और उल्लेखनीय कले की गुंजाइश बनी रहती है । अतः सब खतरों से लेखक ने आगाह किया है
प्रश्न 7. राजनीतिक मूल्यों से साहित्य के मूल्य अधिक स्थायी कैसे होते हैं ?
उत्तर साहित्य के निर्माण में प्रतिभाशाली मनुष्यों की भूमिका निर्णायक होती है । इसलिए वह जो करते हैं वह सब अच्छा ही होता । कला का पूर्णतः निर्दोष होना भी एक दोष है । आज कल व्यक्ति पूजा की काफी निन्दा की जाती है । किन्तु जो लोग सबसे ज्यादा व्यक्ति पूजा की निन्दा करते हैं वे सबसे ज्यादा व्यक्ति पूजा का प्रचार भी करते हैं । यदि कोई भी साहित्यकार आलोचना से परे नहीं है , तो राजनीतिज्ञ यह दावा और भी नहीं करते इसलिए कि साहित्य के मूल्य , राजनीतिक मूल्यों की अपेक्षा अधिक स्थायी है । शेक्सपीयर , मिल्टन और शेली विश्व संस्कृति के आकाश में वैसे ही स्थाई रूप से जगमगाते नजर आएँगे जैसे पहले और उनका प्रकाश पहले की अपेक्षा करोड़ों नई आँखें देखेंगी ।
प्रश्न 8. जातीय अस्मिता का लेखक किस प्रसंग में उल्लेख करता है और उसका क्या महत्व बताता है ?
उत्तर- जातीय अस्मिता का लेखक साहित्य के विकास में प्रतिभाशाली मनुष्य के रूप में उल्लेख किया है । जन समुदाय जब एक व्यवस्था से दूसरी व्यवस्था में प्रवेश करते हैं तब उनकी अस्मिता नष्ट नहीं हो सकती । प्राचीन यूनान अनेक गजसमाजों में बंटा था । आधुनिक यूनान एक राष्ट्र है । इस तरह से कोई भी देश अपनी एकात्मकता भर अपनी अस्मिता के प्रति सचेत रहता के प्रति सचेत रखता है । अतः भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान इस देश ने इसी तरह अपनी एकात्मकता पहुंचाती थी । अतः इस तरह से इसका महत्व अपने देश के संस्कृति के प्रति रक्षा है ।
प्रश्न 9. जातीय और राष्ट्रीय अस्मिताओं के स्वरूप का अंतर करते हुए लेखक दोनों क्या समानता बताता है ?
उत्तर- एक भाषा बोलने वाली जाति की तरह अनेक भाषाएँ बोलने वाले राष्ट्र की भी अस्मिता होती है । संसार में इस समय अनेक राष्ट्र बहुजातीय है , अनेक भाषा – भाषी है । जिस राष्ट्र के सभी तत्वों पर मुसीबत आती है तब अपनी राष्ट्रीय अस्मिता का ज्ञान बहुत अच्छी तरह हो जाता है । राष्ट्र के गठन में इतिहास का अविच्छिन्न प्रवाह बहुत बड़ी निर्धारक शाक्ति है । वमा में मं देश की संस्कृति के निर्माण में कवियों एवं साहित्यकारों का सर्वोच्च स्थान होता है । अतः इस को प्रकार देश के विकास में दोनों का होना अति आवश्यक है तथा ये दोनों एक दूसरे के बिना अधूरा है ।
प्रश्न 10. बहुजातीय राष्ट्र की हैसियत से कोई भी देश भारत का मुकाबला क्यों नहीं कर सकता ?
हुए सक कि उत्तर – संसार का कोई भी देश , बहुजातीय राष्ट्र की हैसियत से , इतिहास का ध्यान में रखें तो भारत का मुकाबला नहीं कर सकता । यहाँ राष्ट्रीयता एक जाति द्वारा दूसरी जातियों पर राजनीतिक प्रभुत्व कायम करके स्थापित नहीं हुई है । वह मुख्यतः संस्कृति और इतिहास की देन है । इसके निर्माण में कवियों का सर्वोच्च स्थान है । इस देश की संस्कृति से रामायण और महाभारत को अलग कर दें , तो भारतीय साहित्य की आन्तरिक एकता टूट जाएगी । अतः ऐसी किसी भी बहुजातीय राष्ट्र के सामाजिक विकास में कवियों की ऐसी निर्णायक भूमिका नहीं रही । इसलिए किसी देश के लिए साहित्य की परम्परा का मूल्यांकन उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना इस भारत देश के लिए है ।
प्रश्न 11. भारत की बहुजातीयता मुख्यतः संस्कृति और इतिहास की देन है । कैसे ?
उत्तर भारत की बाहुजातीयता मुख्यतः संस्कृति और इतिहास की देन है क्योंकि यहाँ राष्ट्रीयता एक जाति द्वारा दूसरी जातियों पर राजनीतिक प्रभुत्व कायम करके स्थापित नहीं हुई यह इतिहास की देन है । वहीं भारतीय संस्कृति के निर्माण में देश के सर्वोच्च कवियों का स्थान है । अगर इस देश की संस्कृति से रामायण और महाभारत को अलग कर दे तो भारतीय साहित्य की आन्तरिक एकता टूट जाएगी । अतः राष्ट्र के विकास में कवियों की भूमिका निर्णायक रही है जैसे इस देश में व्यास और वाल्मीकि ।
प्रश्न 12. किस तरह समाजवाद हमारी राष्ट्रीय आवश्यकता है ? इस प्रसंग में लेखक के विचारों पर प्रकाश डालें ।
उत्तर- समाजवाद हमारी राष्ट्रीय आवश्यकता है क्योंकि जब समाजवादी व्यवस्था कायम होने पर जारशाही रूस नवीन राष्ट्र के रूप में पुनर्गठित हो सकता है , तो भारत में समाजवादी व्यवस्था कायम होने पर यहाँ की राष्ट्रीय अस्मिता पहले से और पुष्ट होगी । वास्तव समाज वाद
हर देश की राष्ट्रीय आवश्यकता है । देश के साधनों का सबसे अच्छा उपभोग समाजवादी व्यवस्था में ही संभव है । समाजवाद व्यवस्था करने के बाद ही कोई भी राष्ट्र शक्तिशाली हो सकता है । अतः ये पूँजीवादी की अपेक्षा तेज है । भारत की राष्ट्रीय क्षमता का पूर्ण विकास समाजवादी व्यवस्था में ही संभव है । लेखक का यही विचार है ।
प्रश्न 13. निबंध का समापन करते हुए लेखक कैसा स्वप्न देखता है ?
उसे साकार करने में परंपरा की क्या भूमिका हो सकती है ? विचार करें । उत्तर- निबंध समापन करते हुए यही सपना देखता है कि समाजवादी संस्कृति पुरानी संस्कृति से नाता नहीं तोड़ती , वह उसे आत्मसात करके आगे बढ़ती है । अभी हमारे देश की निरक्षर निर्धन जनता नए और पुराने साहित्य की महान् उपलब्धियों के ज्ञान से वंचित है । जब वह साक्षर होगी , साहित्य पढ़ने का उसे अवकाश होगा , सुविधा होगा , व्यास और वाल्मीकि के करोड़ों नए पाठक होंगे । लोग इन्हें संस्कृत में पढ़ेगे । इससे देश में बड़े पैमाने पर सांस्कृतिक आदान – प्रदान होगा । सुब्रह्मण्य भारती एवं रवीन्द्रनाथ की रचनाएँ मूलभाषा में तमिलनाडू के लोग पढ़ेगे । साहित्य जातीय सीमाएँ लाँघकर सारे देश की सम्पत्ति बनेगा । एशिया की भाषाओं के साहित्य से हमारा परिचय गहरा होगा । अतः भारतीय साहित्य की गौरवशाली परम्परा का नवीन योगदान होगा ।
प्रश्न 14. साहित्य सापेक्ष रूप में स्वाधीन होता है । इस मत को प्रमाणित करने के लिए लेखक ने कौन – से तर्क और प्रमाण उपस्थित किए हैं ?
उत्तर – द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद मनुष्य की चेतना को आर्थिक सम्बन्धों से प्रभावित मानते हुए उसकी सापेक्ष स्वाधीनता स्वीकार करता है । आर्थिक सम्बन्धों से प्रभावित होना एक बात है , उनके द्वारा चेतना का निर्धारित होना और बात है । भौतिकवाद का अर्थ भाग्यवाद नहीं है । यदि मनुष्य परिस्थितियों का नियामक नहीं है तो परिस्थितियाँ भी मनुष्य की नियामक नहीं है । दोनों का सम्बन्ध द्वन्द्वात्मक है । यही कारण है कि साहित्य सापेक्ष रूप में स्वाधीन होता है ।
प्रश्न 15. व्याख्या करें –
विभाजित बंगाल से विभाजित पंजाब की तुलना कीजिए , तो ज्ञात हो जाएगा कि सामाजिक परिणाम क्या होते हैं । साहित्य की परंपरा का ज्ञान कहाँ ज्यादा है , कहाँ कम है और इस न्यूनाधिक ज्ञान के सामाजिक परिणाम क्या होते है |
उत्तर भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान इस देश ने अपनी एकात्मकता रूप पहचानी । इतिहास का प्रवाह ही ऐसा है कि वह विच्छिन्न है और अविच्छिन्न भी है । मानव समाज बदलता है और अपनी पुरानी अस्मिता कायम रखता है । जो तत्व मानव समुदाय को एक जाति के रूप में संगठित करते हैं , उनमें इतिहास और सांस्कृतिक परम्परा के आधार पर निर्मित यह अस्मिता का ज्ञान अत्यन्त महत्वपूर्ण है । बंगाल विभाजित हुआ और बात है , किन्तु जब तक पूर्वी और पश्चिमी बंगाल के लोगों को अपनी साहित्यिक परम्परा का ज्ञान रहेगा । तब तक बंगाली जाति सांस्कृतिक रूप से अविभाजित रहेगी । अतः इस तरह बंगाल से विभाजित पंजाब की तुलना की जाए तो ज्ञात होगा कि साहित्य की परम्परा का ज्ञान कहाँ ज्यादा या कम है , और इस न्यूनाधिक बोलनेवाले राष्ट्र की भी अस्मिता होती है ।